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उत्तराखंड का प्राचीन इतिहास (PART - 1) बीएस नेगी बुक सार ।


         उत्तराखंड का प्राचीन इतिहास (PART - 1)


 * उत्तराखंड के इतिहास का क्रमबद्ध (सुनतति) वृत्त (वृत्तांत) सर्वप्रथम एटकिसन द्वारा लिखा गया है।

 * उत्तराखंड पुरातत्व की दिशा को आगे बढ़ाने का श्रेय यशवंत सिंह कठौच, यशोधार मठपाल, मदनमोहन जोशी, मदन भट्ट, शिवप्रसाद डबराल, के. पी. नौटियाल आदि को जाता है।

 * हरिद्वार के बहादराबाद में ताम्र उपकरण व मृद्भांड की खोज 1951 ई० में हुई। 1953 ई० को यज्ञदत्त शर्मा ने हरिद्वार के बहादराबाद से पाषाण उपकरणों एवं मृद्भांडों की खोज की थी।

 * हरिद्वार को गेरूवे रंग की सभ्यता का नगर भी कहा जाता है।

 * उत्तराखंड से प्राप्त पास्तर उपकरण (स्क्रेपर्स, छैनी, कुल्हाड़ी आदि) इतिहासकारों ने पलेक वर्ग में रखा है जो आदितिहासिक काल के अन्तर्गत आता है।

 * द्वाराहाट में मुनियों के ढाई पर्वत पर प्राचीन शैलचित्र के अवशेष प्राप्त हुए हैं।

 * उत्तराखंड में पुरातत्व का जनक हेनवुड को माना जाता है और इन्होंने 1856 ई० को देवीधुरा से महापाषाणकालीन पुरावशेष की खोज की थी।

 * रामगंगा घाटी में पाषाणकालीन अवशेषों की खोज यशोधार मठपाल द्वारा की गई।

 * रामगंगा घाटी के नीलग्राम में कपमार्क्स (ओखली) की खोज यशोधार मठपाल ने की थी, मगर उडियार रामगंगा घाटी में है।

 * कुमाऊँ विवि ने रानीखेत के पास धनमल गाँव में 1998 ई० को एम. पी. जोशी व डी. एस. नेगी के संरक्षण में उत्खनन करवाया था।

 * उत्तराखंड से प्राप्त लौह उपकरणों में सर्वाधिक प्राचीन उपकरण लौह फलक है।

 * पीले मानव आकृतियों की खोज नैनीताल में 1999 ई० को हुई और मंगोली शैलचित्र का सम्बन्ध नैनीताल से था।

 * 1986 में अल्मोड़ा जनपद से भी एक ताम्र उपकरण की खोज हुई। मोरध्वज में उत्खनन का कार्य 1887 ई० में एम. एन. घोष द्वारा किया गया था।

 * 1919-20 ई० में दयाराम साहनी ने उत्तराखंड के मंदिरों का अध्ययन किया था जिन्होंने 1921 ई० में हड़प्पा संस्कृति की खोज भी की थी।

 * 14 नृतकों का सुन्दर चित्रण कसार देवी शैलाश्रय अल्मोड़ा से मिलता है, कसार देवी मंदिर पहाड़ी पर स्थित है।

 * बाड़वाला या जगतग्राम में 4 अश्वमेध यज्ञ होने का विवरण मिलता है, जिसमें एक गुप्तकालीन राजा शिवभवानि का एक जिला है।

 * हरिपुर नामक पुरास्थल देहरादून जिले में स्थित है।

 * बनकोट (पिथौरागढ़) से 8 ताम्र पत्रों की खोज 1989 में की गई।



चित्रित धूसर मृद्भांड (Painted Grey Ware - PGW)

 * ऊपरी गंगा घाटी में ताम्र संस्कृति के पश्चात् चित्रित धूसर मृद्भांड संस्कृति का समय था, क्योंकि उत्तराखंड के अलकनंदा घाटी के थपली (श्रीनगर), यमुना घाटी के पुरोला से चित्रित धूसर मृद्भांड के साक्ष्य प्राप्त हुए।

 * थपली व पुरोला से प्राप्त मृद्भांडों पर काले रंग के अनेक प्रकार के चित्र क्षैतिज व अनुदैर्घ्य रेखाओं में चित्रित हैं।

 * इतिहासकार बी. बी. लाल ने चित्रित धूसर मृद्भांड संस्कृति को महाभारतकालीन बताया है।

 * भारत में चित्रित धूसर मृद्भांड संस्कृतियों वाले स्थानों में घोड़े के अवशेष प्रमुख रूप से पाए जाते हैं।

 * उत्तर भारत की तरह उत्तराखंड क्षेत्र में भी चित्रित धूसर मृद्भांड संस्कृति को लौह युग के प्रचलन का श्रेय दिया जाता है।

महाश्म संस्कृति (Megalithic Culture)

 * ऐसी संस्कृति जो पहाड़ों की तलहटी पर बसी हो महाश्म संस्कृति कहलाती है।

 * महाश्म संस्कृति से सम्बंधित आकृतियाँ द्वाराहाट के चन्द्रेश्वर मंदिर के दक्षिण से प्राप्त हुईं। यहाँ से लगभग 200 कपमार्क्स (ओखली) बारह समांतर पंक्तियों में खुदे मिले।

 * महाश्म संस्कृति की आकृतियों की खोज 1877 ई० में रिबेट कार्नक द्वारा की गई थी।

 * कपमार्क्स का सम्बन्ध महाश्म संस्कृति से है, जिनका सर्वप्रथम उल्लेख कार्नक ने किया था।

 * एम. पी. जोशी ने कुमाऊँ से प्राप्त महाश्म कालीन कपमार्क्स को 7 भागों में विभाजित किया तथा टोंक एवं मूल्य जनजाति को महाश्म कालीन बताया था।

 * पश्चिमी रामगंगा घाटी के नौलाग्राम से डॉ. यशोधार मठपाल ने 73 कपमार्क्स खोजे थे।

  • देवीधुरा में कपमार्क्स की खोज डॉ. एम.पी. जोशी ने की।
  • गोपेश्वर के समीप मण्डल तथा पश्चिमी नयार घाटी में ग्वाड आदि स्थानों पर कपमार्क्स की खोज डॉ. यशवंत कठौच ने की।
  • सिस्ट महाश्म संस्कृति में पत्थर से बनी संरचना थी जो मकबरों के रूप में प्रयुक्त होती थी।
  • ​विशाल शिलाखंडों एवं चट्टानों पर बने ओखली आकार के उथले गोल गड्ढे पुरातत्व विज्ञान में कपमार्क्स कहे जाते हैं।


किरात प्रजाति (Kirata Tribe)

  • कोल के बाद उत्तराखंड में किरातों के आधिपत्य की जानकारी मिलती है।
  • ​इन्हें किन्नर या कीर भी कहा जाता है।
  • स्कन्दपुराण में किरातों को भिल्ल कहा गया और इनकी भाषा को मुण्डा एवं इनका मुख्य खाद्य सत्तू था।
  • ​किरात प्रजाति भ्रमणकारी पशुपालकआखेटक (शिकारी) जाति थी।
  • महाभारत के वन पर्व के अनुसार, किरातों ने अपने नेता शिव के झंडे के नीचे अर्जुन से युद्ध किया।
  • ​किरातों के साथ अर्जुन का यह युद्ध भिल्लव केदार नामक स्थान में हुआ, जिसे शिवप्रयाग भी कहा जाता था।
  • बाणभट्ट की रचना कादम्बरी हिमालय क्षेत्र में किरातों के निवास की पुष्टि करती है।
  • कालिदास के रघुवंश महाकाव्य में किरातों का वर्णन मिलता है।
  • ​वर्तमान में अस्कोटडीडीहाट नामक स्थान में किरातों के वंशज रहते हैं।
  • जार्ज ग्रियर्सन किरातों को हिमालय क्षेत्र की प्राचीनतम जाति मानते हैं।
  • राहुल सांकृत्यायन के ग्रंथ 'हिमालय परिचय' में किरातों में संयुक्त परिवार प्रथा व पुनर्जन्म एवं जादू-टोना में विश्वास रखने का वर्णन मिलता है।
  • मेगस्थनीज की पुस्तक इण्डिका में भी किरातों का वर्णन मिलता है।

खस प्रजाति (Khasa Tribe)

  • किरातों के बाद उत्तराखंड में खस प्रजाति का उल्लेख मिलता है और खसों को 1885 ई० में शूद्र वर्ग में सम्मिलित किया गया।
  • महाभारत के सभा पर्व के अनुसार, खस लोग महाभारत के युद्ध में कौरवों की ओर से लड़े थे।
  • राजशेखर की काव्य मीमांसा के अनुसार उस समय मध्य हिमालय के कार्तिकेयपुर नगर में खसाधिपति का राज्य था।
  • वृहत् संहिता में खसों को तंगा कहा गया है।
  • घर जँवाई प्रथा एवं पशुबलि प्रथा खसों में प्रचलित थी।
  • ​खसों की विधवा किसी भी पुरुष को अपने घर में रख सकती थी, जिसे टिकुआ प्रथा कहा जाता था।
  • झटेला प्रथा खसों में व्याप्त थी, यदि कोई स्त्री किसी दूसरे व्यक्ति से शादी करती है तो उसके पहले पति से उत्पन्न पुत्र को झटेला कहा जाता था।


शक जाति (Shaka Tribe)

  • ​शक पश्चिमी एशिया से आयी हुई खुश पशुपालक जाति थी।
  • राहुल सांकृत्यायन के अनुसार, शक खस का ही अपभ्रंश है।
  • ​उत्तराखंड के अधिकांश सूर्य मंदिरों से इस जाति के साक्ष्य प्राप्त होते हैं।

​भोटांतिक या शौका प्रजाति (Bhotantik or Shauka Tribe)

  • काली नदी घाटियों में रहने वाली भोटिया प्रजाति को शौका कहते हैं जो एक व्यापारिक प्रजाति थी। 1962 ई० तक भोटिया लोग तिब्बत से व्यापार करते थे।
  • 1914 ई० में हुए तिब्बत व अंग्रेजों के बीच समझौते के आधार पर भोटिया जाति को तिब्बत से व्यापार करने की छूट प्राप्त हुई।
  • ​भोटियाओं की अनेक उपजातियाँ थीं जो निम्न हैं - गर्ब्याल, गुंज्याल, मर्तोलिया, टोलिया, पांगती, कुटियाल, दतवाल आदि।
  • ​भोटांतिकों की उपजाति राठ या संगोत्र में विभक्त थी एवं राठ को भोटिया लोग बिरादरी का सूचक मानते थे। इसमें आने वाले परिवारों के बीच वैवाहिक संबंध स्थापित नहीं होते थे।
  • रड़-बड़ प्रथा का प्रचलन दारमा व व्यास घाटी में रहने वाले भोटांतिकों में है। भोटिया लोग घूरमा देवता की पूजा वर्षा देवता के रूप में, जबकि धबला देवता की पूजा सम्पत्ति/व्यापार के रूप में करते थे।
  • ​भोटांतिकों के समूह को स्थानीय भाषा में कुंच कहा जाता है।
  • ​भोटिया उत्तराखंड की जनजातियों में सबसे प्राचीन जनजाति है।


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